हर एक आँख जो होती खामोश है, फ़साने हज़ार बयान करती है
आँखों की हरकत है ये रूह ही जाने ये किसपे एहसान करती है
सेहर की वोह फीकी रोशनी हो
या श्याम का हल्का अँधेरा
ठहराव दोपहर का कड़ा हो
या सुबह धुप सुनहरा
हर एक पल ये अपने ही आप से कोई नया किस्सा बयान करती है
आँखों की हरकत हाय ये रूह ही जाए ये किसपे एहसान करती है
देखती है ये तेरे बे वफाई को
सुन्न तकती है तेरी ओर
आंसूं का सैलाब बहती कभी ये
कभी सुनाती है सन्नाटे का शोर
खामोश रहती है ये पर खामोशी से क़त्ल ए आम करती है
आँखों की हरकत हाय ये रूह ही जाए ये किसपे एहसान करती है
जब कभी भी इस ज़मीर को कोई जीन आ कचोटता है
आईना बन के तू झलकती है चेहरे के तसुर में
आँखें तो रूह का शीशा है ये दगा देती है
इंसान को हर कसूर में.
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