Saturday, June 12, 2021

Humans and Humanity both are a casualty

इंसान और इंसानियत 

 इस वबा ने कुछ ऐसा पैर पसारा है।
 इंसान के साथ इंसानियत भी मारा है। 

 रहम ओ करम हो वक़्त का, ये भी नवाजिब। 
 वक़्त का हर सितम इस वबा से हारा है।
 
 फासले दिलों में कुछ इस कदर है आ गए
 "मेरा बस मेरा है, वो तुम्हारा बस तुम्हारा है।" 

 यों तो नक़ाबों का सूरत पर टिकना ज़रूरी, 
 बहुत से सीरत है जिनसे नक़ाब उतारा है। 

 ग़र ये नहीं क़यामत तो फिर क्या है ज़लज़ला ? 
हाला-ए-बुग्ज़ में कुछ डूबा जहां सारा है। 

ZalZala

 Vocabulary 

 वबा = Pandemic 
हाला-ए-बुग्ज़ = Poison of Hatred.

 To think of it, this pandemic has not only killed humans but also killed humanity.

 On one side I do believe this is man made. But there is also a saying "Man proposes God Disposes."

 One of the many reasons why God could not dispose this evil proposal by man is because even He wanted to test us. 

 The nefarious ideas of the experimenting Virologists of China, only made his work easy.

 During the 1920 Spanish flu pandemic there was a same situation, but the incidences where you had politicians taking a mileage or people black marketing essential commodities were less. Cut to after a hundred years when a similar situation comes God notices the moral degradation in the society and wonders, " can humans as a race still live on or is it the time that I pull the plug? " 

 I remember in my school there used to be periodic tests to assess my dexterity. Well we can assume this is a periodic assessment of God to understand whether we pass or we fail. As we know we had passed earlier and that is why we are here, but consistently our evaluation has fetched lower scores definitely showing a decline in our moral standards. 

 Just hope, this time the score is not below the Red line, where a drastic decision needs to be taken by God. 

 #humanity #god #pandemic

Cheers

Thursday, April 29, 2021

Gender Inequality

I have often wanted to write about Gender Inequality in my set of Poems. However, this is a very complex topic and it would be really unfair if this is tackled in a unilateral way. Gender Inequality has several aspects and several faces that we see in the real world. It can be with Females or males. Depends also on various circumstances. 

Can be the case that you are a female and you are not being provided equal opportunities. 

Can also be the fact that you are a male, but your sensitivity is perceived as your weakness. 

I am sure, I will not be able to cover all the aspects of this topic as there are so many things to be told about Gender Inequality. But then let us have some of them. 

All of these poems are written in Hindi / Urdu. 



The first poem is about the Female Gender inequality. I wanted to start with a cliche topic, so that we get a bit of a warm up. Much has been said about the Female gender inequality so I will not say much about it.  Female Gender inequality has been the talk of the town in general and is one of the favorite topic of feminists. I cannot classify myself as a feminist, rather I will not categorize myself at all but then this topic really intrigues me as well. 


 ज़नाना (Female):

तुम समझते हो वो दफ्तर के लायक नहीं 

उसे तो बस चूल्हा चौका तुम फुकवाओ। 

बस वो औरत है कमज़ोर ओ मज़लूम

येही बात झूठी तुम उसे समझाओ। 


मगर ये बात तुम्हारी दकियानूसी है,

उसके ज़हन में ये तो उतरने से रही। 

वो तो वोही करेगी जो दिल चाहे उसका

अब गोया,  वो तो डरने से रही। 


पर तुम्हारा क्या है,  तुम बाज़ न आयोगे

कुछ बातों से फिर उसे तुम डरायोगे। 

ज़नानी को बस फिक्र अपने अज़मत की

उसी के खतरे को अब हत्यार बनाओगे। 


मगर वो दिन थे जो लद गए, अब वो दिन नहीं। 

अब वो इन डरावनी बातों से कभी नहीं  डरेगी। 

उसके कदमों नें आसमाँ को मंज़िल बनाया है। 

रोको चाहे जितना भी तुम,  वो आगे बढ़ेगी। 


------------ ZalZala



My next Poem is just the opposite of the earlier one. This is about Male gender inequality. Yes, even men do suffer this problem. Although it is not talked about or not written about. Well, just like a person who takes up the female cause is respected as a feminist, I am not sure the other way is also respected as much. Words like Chauvinist, MCP or Misogynist often haunt a person who takes up the male cause. However, there are places where men are also subjugated and categorized. 

Eg. In the kitchen, or a man doing household chores. 

The next poem talks on the same lines. 


आदम (Male):


ये ग़लत तहलीली है जो तुम कर रही हो आज। 

"वो मर्द है,  जगह उसकी है घर से बाहर काम में

नहीं कर सकता वो कभी भी रसोई के काम काज। 

उसकी आँखों में आँसू कमज़ोरी की कोई निशानी है

सब कुछ ठिक है यहाँ,  या फिर और कोई कहानी  है? 

ये सारे सवाल,  ये सारे कयास जो तुम लगाती हो

क्या इस तरह फिर किसी आदम को आँक पाती हो? 

ग़र चाहती हो तुम कि वो कोई राय न बनाए तुम्हारे लिए

फिर कोई राय लिए उसके तुम क्यों बनाती हो? 


हाड़ मांस का वो भी तो एक इंसान ही है 

लेकिन तुम्हारी आँखें है जो उसे हर दम नापती है। 

ये डर है तुम्हारा या फिर कोई ज़नानी आदत

जो एक आदम को हर पल कटघरे में डालती है। 

ये क्यों हर आदम को एक तराज़ू में तौलती है, 

और दिल ही दिल में बस एक ही बात बोलती है;

"ये भी उन दूसरों की तरह होगा जिनका तजुरबा है

ये भी शायद नज़रो को काला कर देखता होगा

और क्या पता शायद अपनी बीवी को मारता होगा, 

और अपने बीवी की कामयाबी से जलता होगा। "


बस ये सारे शुबा तुम्हारे, ग़लत नहीं पर सही भी नहीं 

जानो यहाँ हर इंसान, आदम या ज़नाना, मुकतलिफ है।

पर हर मर्द तुला जाता है एक ही तवाज़ुन में

अब येही तो आज बड़ी तकलीफ है। 


------------ ZalZala



My Third Poem in this series is more about the society. Sex is something that is biological and defined by birth, however gender is something that is defined by culture. If this is the basis of defining a gender then the entire process is very artificial and made by the society. A social dictum often dictates the fact that how each and every gender will be treated. This very aspect of gender leads to a societal gender inequality. 


ज़माना (Society)


हर एक शक्स ने कानून बनाया अलग थलग यहाँ पर। 

एक उसूल है मर्दो सा मर्दाना,  सहुलियत ख़ातिर, 

तो एक औरतों सा ज़नाना,  ज़ुल्म के ख़ातिर। 

ये दोनो कानून एक दूजे का मुताज़द करते हैं। 

ये कोई  सालों सदियों पुरानी आदत है जो चल रही

बस एक जिन्स को रखना है उपर, ऐक नीचै

ये बस उनकी पूरज़ोरी से मदद करते हैं। 


ये ज़माना अलग काठी से दोनो की करती तहलीली 

ज़नानी को सताता है,  और आदम को दरियादिली। 

हर मक़सूस ताकत ये मर्दो के करता नज़र है। 

रही बात बदकिस्मत औरतों की तो क्या कहे,

इनके लिए ज़माना बरसता बन कर कहर है। 


ये जो फर्क मुआश्री है औरत ओ मर्द का, मिटाओ।

बदलते वक़्त के साथ बादलों,  अब तबदीली लाओ। 


------------ZalZala



I always believe that being a parent is one of the most wonderful things that can happen to you. I am the father of a daughter and this gives me immense pride. However, in a typical Indian society, still in the 21st century things have not progressed as much. A parent of a daughter, especially the father, takes certain extra burdens. He has to be concerned about the marriage of the daughter right from the time she is born. Marriage! Can you imagine? In other parts of the world, a father would think, "Why on earth I should torture myself with this responsibility? My work is to give her a good education and confidence so that she can be one in a million. Marriage is something that she has to decide on her own and also finance it." 

Well, even I belong to the same school. I am not parenting a daughter just to get her married off. This is not my objective. My objective is to make her stable and confident. However, this is not the case in majority. 


बेटी का बाप (Daughter's Father) 


अकसर वो कुछ डरा डरा सा रहता है। 

तो क्या हुआ  ग़र एक मुस्कान रखता है? 

वो बेटी का बाप है, देख कर समझ लेना

बड़ा नाप तोल के वो हर चाल चलता है। 


उसकी बेटी हुनर की मालकिन होगी मगर

उसे फिर भी एक फिक्र क्यों सताती है? 

हर शाम को जब ढल जाता है सूरज तो

सोचता है,  "वो घर क्यों नहीं  आती है? "


उसे ग़ुरूर है अपने लख्त-ए-जिगर पर

उतना ही सताता है उसको एक डर। 

हर दिन रखता है कोई  पत्थर सीने पर

बेटी को फूलो का दे बिछौना मगर। 


फिर ऐसा भी एक दिन आ जाता है। 

जब रिवाज़ों का नश्तर उसे हराता है। 

मनाता है जहां खुशी उस मंज़र का

और वो रह जाता है तन्हा एक कोने में

भीगी आँखों से पकड़ता है बेटी का हाथ

और हसते हसते उसको विदा कर आता है। 


वो रो भी नहीं  सकता और कह भी नहीं सकता

वो बस चुप कर अपना, फर्ज़ निभाता है। 

हर एक हिस्सा कर देता वो कुरबान जो

वो बेटी का बाप कहलाता है। 


------------ ZalZala




How many of you have heard this phrase "Beta hai to vansh chalega"?  I am sure many of you. Now just understand. Vansh, as in clan, is a social concept. The DNA is a mixture of both father and the mother. So technically speaking, a daughter or a girl is equally proficient to take the name of the clan as the son is. 

Eg. In the British monarchy, there have been several instances when the heir is not a male but a female. In that case the throne has a queen. As recent as the present. 

Even if we were to hypothetically believe in this concept of a son running the clan then we come to a very pertinent questions. How much difference would it make to the history of the world and me if my clan is run or not run. Tomorrow when I am not there in this world, I will not be there to witness this huge run of my clan, then why pressurize for a son?  

Next poem takes on this Aspect. 


बेटा वंश चलाता है (He runs the Clan) 


कब तक हम ये भेड़चाल  चलेंगे?

वंश आगे बढ़ाता है सिर्फ बेटा,

ये बात ज़हन में हम कब तक रखेंगे? 


और चलो वंश आगे बढ़ भी गया तो क्या

कौनसा मौर्य सामराज्य के सुल्तान हो तुम?

है तो वोही दौलत,  थोड़ा या फिर ज़्यादा, 

कहाँ किसी तवारीख़ की शान हो तुम?

ग़र मान भी ले कि तुम तीस मार खाँ हो

फिर भी तुम्हें क्यों है बस बेटे की आज़

राज तो ज़नानी भी चलाती है दम खम से

निकलो तुम कल से,  आँखें खोलो आज। 

मिसालें ग़र दी तो दंग रह जाओगे।  

बेटियाँ कैसे होती है हर काम में अव्वल 

तुम यक़ीन नहीं कर पाओगे। 

पर तुम्हें तो सिर्फ बेटे की ललक है, 

फिर वो चाहे निकले कोई कपूत। 

"वंश चलाता है बस लड़का, और कोई नहीं"

चाहे फिर करे काले वो सारे करतूत। 


ये तुम्हारी जिन्सी आज़,  एक दिन दोज़ख पहुँचाएगी।

उपरवाले को भी ललक ये,  रास कभी न आएगी। 


------------ ZalZala


"Mubarak ho beta hua hai" (Congratulations, it is a boy), this is something that has been also overhyped in the Indian society. We have all been exposed to our glorious history again and again. There are several folklores of several beliefs that provide a huge importance to the male child. 

So much so, that in some cases getting a male child is like winning a lottery, no matter if the child grows up to be a ruffian or some goon in some place. 

The next poem is about this. I would like your comments especially if you can decode the end over here. 



मुबारक हो...... बेटा हुआ है (It is a Boy) 


कितनी मिन्नतें की भगवान से फिर ये दिन आया है। 

भगवान ने जैसे उस पर कोई  मेहर बरसाया है। 

परेशाँ था वो अब तक मगर,  थोड़ी है राहत, 

बोली जब वो नर्स " आपको बेटा हुआ है। "


रामचरण है नाम उसका,  गाँव है मलकापुर

सुनकर ये खबर देखो,  सबके है बदले सुर। 

वो कस्बा जो तानें देता,  कहता "पत्नी बांज है"

आज वोही लोग आ कर लेंगे दावत ज़रूर। 


घरवाले भी आज खुशी से झूम रहे हैं इस कदर

लगता है जैसे बिन तिथि कोई  तीज है आज। 

आज तो सास भी बहू को मान रही है देवी कोई 

खिसियानी ननद का भी आज बदला है मिज़ाज। 


और पत्नी, जो माँ बनी है,  चैन की साँस लेती

और चुपके से आँसू छिपाकर, रब से ये कहती

" या रब मुझे तू माफ कर,  मैं ही कमज़ोर थी

दी कुरबानी लछमी की,  मेरी दशा कुछ और थी, 

रखना मेरी बेटी को तू, अपने निगाहें मयार में

मैं तो नहीं दे सकी पर, कमी न हो तेरे प्यार में। "


------------ZalZala


My last poem in this series is about profession. Professional gender inequality is really increasing across the world. Some work are defined for females and some for males. Well sounds really archaic but it is there. A professional setup may sound or give a feelers of being extremely fair, however, it really has a strong undertone of gender inequality in many cases. 


पेशा (Profession) 


"उसको रहने दो!  वो ये कर नहीं  पाएगी!

अरे लड़की है वो,  अब कैसे भार उठाएगी। 

वैसे भी क्या यहाँ  पर मर्द कम पड़ गए ?

या फिर चुड़ियाँ पहन ली है सब लड़को ने

जो एक कमज़ोर सी लड़की पर ये ज़िम्मा है।

क्या ओफिस हमारा अब इतना निकम्मा है? "


ये बातें आजकल कुछ आम सी हो चली है 

ज़माना बदला, वक़्त बदला,  सोच कहाँ बदली है? 

वोही हज़ारों साल पीछे, हम अब भी करते निवास

और दुनिया के आला यहाँ करते सभी बकवास। 

उन बातों पर,  चाहे तारीफ़ हो या तंकीद, ज़ाहिर है

लड़का ही कर सकता है काम सारे,  वोही माहिर है। 

मगर वक़्त और हालात अब कुछ और बताते हैं

ये अब ज़नानी कंधे भी ये तकल्लुफी उठाते है।

ये पकड़ हथियार जाती हैं मैदान-ए-जंग में भी।

और कहीं कहीं तो ये जहाज़ लड़ाकू भी उड़ाते है। 


मर्दाना ऐनक से देखने वाली नज़रो में नज़ाकत कहाँ? 

खुद के अना से परे देख पाए,  ऐसी करते हिमाकत कहाँ? 

पर वक़्त,  वो तो कोई चश्मे की मोहताज नहीं। 

जो चल रहा था ज़हनी ज़ुल्म सदियों से बदस्तूर;

जो आईन करता ज़नान को खुशी से बहुत दूर;

वो आईन अब है कल की बात,  वो आज नहीं। 


हर पेशे पर हो रही अब बराबर की हिस्सेदारी है। 

कल की बात और थी कल तो अब बीत गया

आज कंधे से कंधा मिलाने की तैयारी है। 


------------ ZalZala

Tuesday, April 27, 2021

वो ना बोल रही है ( It is a No)


 Hi, 

I am not a very good writer of feministic poems as possibly I feel that feminism and women empowerment are masculine invented terms in order to distract the already elegant female population and putting them on a ground which is favorable for men.  However,  being a daughter's father it becomes apparent to understand about the prevalent dangers in the society.  


I am aware of freedom in relationships and equal rights given to the fairer sex, however my major concern is force. A no means always a no.  


वो ना बोल रही है


शायद तुमने ठीक से सुना नहीं,  वो ना बोल रही है

हाँ तुम,  जो उसके किरदार को कपड़ों से नापते हों। 

दिन भर करते तो हो बात तुम तेहज़ीब ओ वक़ार के

मगर शाम ढले तो गली कूंचे में अपनी आँख सेंकते हो। 

और आज कल तो ज़बानी तीर भी चल रहे हैं तुम्हारे 

उसे बेवजह छूने की भी एक तवील तमन्ना रखते हो। 

तुम्हारे दिल के बंध कमरो के राज़ वो खोल रही है। 

शायद तुमने ठीक से सुना नहीं,  वो ना बोल रही है।




तुम शायद उसकी "ना" में हामी का लेहजा ढूंढ रहे हो

या फिर जोराजोरी की हसरत तुम बखूबी रख रहें हो

"वो सिगरेट,  शराब पीती है तो शायद चल देगी साथ"

ऐसी शायद कोई  तक़रीर ज़हन में लिख रहे हो। 

मगर कपड़े,  ज़ायके,  ये कब से मंज़ूरी के नुमाइंदे हुए?

ये बस होते है वैसी आदतें कि जैसे तुम्हारी भी है। 

पर ये परवरिश है तुम्हारी जो उसको हल्का तोल रही है। 

शायद तुमने ठीक से सुना नहीं,  वो ना बोल रही है।


तुम्हारे घरवाले शायद ये बातें बखूबी सिखाते होंगे तुम्हें 

"लड़की के चाल चलन अच्छे नहीं  है, न जाने कैसी है,

सिगरेट, शराब के साथ न जाने क्या क्या शौक रखती हो"

एक पल के लिए मान भी ले अगर ये सब सच है तो क्या? 

ज़िंदगी उसकी हैमर्ज़ी भी उसकीतुम कोई मुंसिफ नहीं 

उसकी बेपरवाह अदाएँ, तुम्हारे लिए कोई  दावत नहीं। 

मगर ये खयाल बस तुम्हारे ज़हन में ज़हर घोल रही है। 

शायद तुमने ठीक से सुना नहीं,  वो ना बोल रही है।


उसकी ना में अपनी हा ढूंढने वाले ज़रा अब रुक जा।

फिल्मों से सीखा है तुने यहाँ पर इश्क़ का सबक कोई ।

तेरी तालीम हुई है बेगैरत पर्दो की आड़ में समझता हूं

पर इस तरह से इश्क़ मुकम्मल न हुआ अब तक कोई। 

कर सको तो एक बार उसके इंकार का एहतराम करों

इश्क़ होता है महीन जज़्बा,  इसे यों न तुम बदनाम करों। 

मगर ये ग़लीज़ खयाल हैं जो तेरा खून उबाल रही है। 

शायद तूने ठीक से सुना नहीं,  वो ना बोल रही है।


------------ ZalZala

ग़र हम न होते ( Telecom Engineers)


The poem is based on Telecom Engineers.

 Telecom engineers are today's Gods. 

 Nothing can happen without them. Basically you can't even call a doctor. If you do not feel that way then let's do a test. A Telecom engineer can live without a doctor for months A doctor cannot live without a phone for even a second.

Anyone who you meet in this world cannot live without a mobile phone and Telecom network these days. 

The world will come to a standstill if there were no Telecom network. However, there are no words of accolades that are given to this fraternity, such is the level of ignorance in this world. 

Sometimes, I really feel the world deserves a doom because the world has people with the most bizzare logic. 

This is the reason I wrote this poem for them. They are the warriors of warriors. Because without them nothing is possible.



ग़र हम न होते? (For Telecom Engineers) 

दूर किसीको कैसे देख पाते,  ग़र हम न होते?
मोदीजी को भी कैसे गलियाते,  ग़र हम न होते? 
ये जो सूर्पनखा सी सजकर तसवीरें वाज़े करती हो
दुनियाँ को इन्हें तुम कैसे दिखाते,  ग़र हम न होते? 
बब्बू शोना, जादू तोना, दूर से अपने होंठ भिगोना
हर पल पगलाई इश्क़ में, ये करतब जो करते हो, 
ये करतब भी कैसे कर पाते,  ग़र हम न होते? 
"Ooh Aah Doctor You are so great"
वबा के इन दिनों कहते थकते नहीं लबों से, 
पड़ बीमार, डॉक्टर को कैसे बुलाते,  ग़र हम न होते? 
आज दिल पिघला है तुम्हारा पुलिस वालों पर 
मुश्किल में कैसे पुलिस बुलाते,  ग़र हम न होते? 
सफाई वालों पर जो आज कलेजा यों पसीजा है, 
घर में कैसे तुम उन्हें बुलाते,  ग़र हम न होते? 

आते हो ज़ूम पर और कुछ शायरी पढ़ जाते हो
अरें ये भी कैसे तुम पढ़ पाते,  ग़र हम न होते। 
शुक्र मनाओ, WFH के नाम पर कोई काम तो है, 
इससे भी नदारद तुम हो जाते,  ग़र हम न होते। 
इतराती हो देख कर अपने Bank Balance को, 
कैसे फिर इसपर इतराती,  ग़र हम न होते? 

अजीब से इस दुनिया का तुम तसव्वुर करों
जहाँ तुम हो तुम्हारे हुनर के साथ, बिन हमारे
अच्छा ही होता, फिरते फिर गलियों में तुम
फाड़ के अपने बदन के कपड़े सारे। 
हमें बुलाते भी तो हम नहीं आते पास कभी
सभी तुम्हारे इरादे रह जाते धरे के धरे। 

ये Virtual मेहफिलें,  ये Meme के कारखाने
ये बेबहर सी शायरी,  ये कुछ बेसूरे से गाने। 
ये तितलियों की तसवीरें,  ये Online जगरातें
आज बिन हमारे,  खुदा भी पास न आते। 

फिर भी कुछ खुदा मानिंद ही तुम्हें माफ करते हैं
हमारी आदत भी कुछ परवर्दिगार सी हो गई है। 
खिदमत का तुम लाचारों की आदत है इतनी। 
अब कुछ इसमें ही ज़िंदगी खो गई  है। 
तुम्हारी रातों को जिन्सी तसविरों से करके रोशन
हमारी तो कई सौ राते अब सो गई हैं। 

फिर भी खुदा के दर्जे में आतें हैं
तभी तो बेरोक फर्ज़ निभाते हैं। 

जानते हैं,  ये Stupid Janta हैं, लाचार ओ बदहाल
ग़र हम न रहें दो पल,  तो पागल हो जाते हैं।

------------  ZalZala






Tuesday, January 5, 2021

Polyandry! An ancient Modern concept

 What is Polyandry? Is it practiced in India?

Picture showing Queen Draupadi
with the five Pandavas
Polyandry is a concept where we have one women living with multiple male partners in the same arrangement. The arrangement can be a marriage or it can also be a setup where official marriage is not done. Important thing is that each and every male partner is aware of the fact that there is another male counterpart involved in the relationship with the same female. Seems funny, immoral? Well! Not so. This has been practiced since the age of Mahabharata, one such example is Draupadi.

Todas from the Nilgiri Hills
The surprising thing is that Polyandry is practiced even today in India in many places and that too with a lot of amiability. There is mutual consent and there is a lot of respect for the women who are involved in the practice of polyandry in these places. Most importantly the women are not judged by the yardstick of the so called modern society that we live in, which believe me, is not so modern as it was in the ancient times.

The village of Kinnaur in Himachal Pradesh is still practicing Polyandry, Todas are the tribes from Nilgiri hills who practice polyandry. Polyandry is also practiced in Kerala even today. Therefore, it is not an outdated concept and definitely not Immoral. Places in Uttarakhand (Jaunsar-Bawar) also have examples of practice of polyandry.

Source: https://en.wikipedia.org/wiki/Polyandry_in_India#:~:text=Polyandry%20is%20in%20practice%20in,Kinnaur%20district%20of%20Himachal%20Pradesh.&text=There%20are%20many%20forms%20of,happens%20at%20a%20later%20date


My Take on Polyandry:

I was asked to write pieces on polyandry and initially I was very apprehensive. Being a writer in Urdu, I wanted to be really non-judgmental about writing the same. Therefore, I decided that I will write two different pieces on polyandry and they will be from different perspectives all together. One would be from the male perspective. A man who is a part of a polyamorous relationship and another will be from the point of view of woman who is the fulcrum of such a relationship.

Polyandry is an ancient concept with modern virtues


Polyandry in Urdu is called Kaser Shoree (कसेर शोरी ) and the female who is the fulcrum of this relationship is called Kaser Shoraa (कसेर शोरा ). Two of my poems are based on these two concepts. The language is simple with some words that you will need to have a look on deeply.

My message to you is not to be judgmental about anybody while reading such things. Such things are practiced and are as modern as any modern technology like 5G and Internet. Basically, as we will dig deep into our culture we will come to know that things that were actually asked to be banned were more free and more emancipating than the present system that involves a lot of control and prohibition.

Well let us explore these things in our stride then. 


My two Poems on Polyandry in Urdu Language: 

As I said before, I took up this challenge to write the poems based on this extremely complex concept from two points of views, from the male point of view and from the female point of view. So here are the two different poems for the same. 


कसेर शोरी (Male Perspective)

I have always though of exploring the idea of how it would be for a man to enter a polyandric relationship . While the whole society may be calling it immoral,  calling the girl names,  calling the men non-masculine and a lot of that.  But today let us isolate the society and understand how does it feel for a man who is in love with a woman already in love with another man.  When the woman accepts the fact that she is ready for a dual relationship,  what is the impact in his thought process and how he feels or rather should feel. 

 

Many people have been putting their stamps on Polygamy and how it was justified. If Polygamy was a necessity then why is Polyandry a sin? 



मोहब्बत ग़र हो मुकम्मल एक मंज़िल से

कोई बात नहींदोनो से मोहब्बत ले लो।

वजाहत ले लो उससेहमसे ज़हानत ले लो।

 

कसेर शोरीये हो रहा पहली बार नहीं।

हो सके तो दिल से अपने हिदायत ले लों।

 

दो फेफड़े अगर लगते हो ख़ातिर साँस लेने के

दो आशिक़ फिर कहाँ दोज़ख़ तुम्हें पहुँचाएंगे।

ग़र मानोगी अपने दिल के आज़ाद ख़याल

बहुत से दोज़ख़ इस जहां में बन जाएंगे।

 

आवारा ग़र मेरा दिल है मेरी हमनशीं

तो तेरी आवारगी कहाँ सज़ा की हक़दार है

दिल तो दिल हैआदम या ज़नाना।

ये बस धड़कनों का ही फरमाबरदार है।

 

मुझे मुसर्रत है और कोई  हैरत नहीं

कि तु मेरी तन्हा कोई  दिलरुबा नहीं

ग़म तो तब होता सनम मेरी जो कहती

कि तुझे किसी और से इश्क़ हुआ नहीं।

 

ये तेरा इश्क़ का एक कतरा मुझे महकाता है

मेरा प्यार कोई आज़ का मुरीद नहीं  सनम

मुझे रक़ीब के साथ भी जीना आता है।

बशर्ते इस रिश्ते में इज्ज़त की कमी हो

हमारा प्यार रहें यों ही बरकरार दिन दिनो

बनें रहें सारे मुख्फी असरार दिन दिनो

रफ्ता रफ्ता गिले शिकवे हो जाए तहलील

ज़माने को कर अंदेखा कोई मोहब्बत हो तवील।

 

मुझे किसी बात का कोई मलाल होगा

कि अग़र ये बात ज़माने को गवारा हो

कि मैं होकर आदम कितना भी बहकू

फिर ये गुनाह कहाँ ग़र तेरा दिल आवारा हो।

उस आवारा दिल से ही मुझे मोहब्बत है।

अपनी थोड़ी मोहब्बत दे कर मेरी मोहब्बत ले लो

वजाहत ले लो उससे  सनमहमसे ज़हानत ले लो।

 

------------ ZalZala

कसेर शोरा (Female Perspective)

 

ये दिल मेरा अपने तर्ज पर ही धड़कता है

तो क्या हुआ ग़र कुछ धड़कनों में तेरा नाम है

और कुछ पल लिए रक़ीब तेरे धड़कता है?

मोहब्बत का बटवारा मुझसे हुआ नहीं

ज़र्ब मोहब्बत को मैने कर लिया।

ज़माना कितना भी नामुमकिन कहे इसे

चाहत दोनो से कर लिया।

 

तुम्हारा हक़ है तुम अपनी राय बनालो

वो ही जो ये मुआश्रा मेरे लिये बनायेगा

कोई लावारिस जागीर मानिंद ये

मुझपर अपना हक जताएगा

हाँ, सच कहती हूं तुम भी गुट बनालो

हाँ, सच कहती हूं तुम खुद को बुझालो

पर वो जो प्यार के तुम शायद हकदार थे

अब उस प्यार को तुम गवा लो।

 

तुम मेरा प्यार हो, और शायद वो भी।

मेरे दिल के हिस्सेदार होऔर वो भी।

मैं दो दिलों कि मालकिन नहीं तो सही

तुम दिल के किरायेदार हो, और वो भी।

वक़्त को तकसीम करना मुझे आता है

हाँ वक़्त दोनो को देना मुझे आता है।

दोनो को हिज्र वस्ल का सुकून देती हूं।

बटी हुई मोहब्बत नहीं दे रही मैं तुमको

दोनो को मोहब्बत दो गुन देती हूं।

 

मैने इज्ज़त-अवज़ाई में कमी तो रखी है!

उलफत--शनासाई में कमी तो रखी है!

हाँजो ये रुसवाई हैवो कुछ आरज़ी है।

रहूं मैं सुकून से तुम दोनो के साथ, येही पर

ये ज़माने की नहींये मेरी मर्ज़ी है।

ये जो लोग उंगली हम पर बकसरत उठाते

ये कोई  ज़िंदगी जी रहे है दश्त नुमा सनम

ये कोई ज़मीन को खोद तो पाते है मगर

उस पर हम जैसे गुल नहीं  खिला पाते।

 

तभी मैं कहती हूं मेरे दिलबर, और दिल से

तुम मेरी ज़िंदगी में कोई दुसरा शक्स नहीं

तुम तो वो पहला प्यार हो, जो दोबारा किया है

जानती हो मैं कि वक़्त कम होता है यहां

पर मेरी क्या ख़ता जो सलीके से गुज़ारा किया है।

मुझे तुम दोनो से सुरगरूर होना आता है

ये भी कहना कि ज़िंदगी में मेरे दो सहारे है

कुछ ग़म उसको दिए मैनेऔर कुछ तुम्हारे है।

 

तवायफ़कसेर शोराजिन्सीये सब उनवान

जो ये बेमतलब दुनिया मुझे तजवीज़ करेगी

ये सब तोहमतमैं हस कर ले लुंगी, लिए तुम्हारे

क्योंकि आरज़ी वफा तो तवायफ़ भी निभाती है।

मोहब्बत का अहद तो वो भी कर जाती है।

और मैं!!!  मैने तो शिद्दत से मोहब्बत निभाई है

ये और बात है ये हमारा रिश्ता तसव्वुर से परे

दिल मेरा है कुछ मसनद मानिंदसनम

क्या ख़ता मेरी जो इसमें दो ख्वाबगाह है

एक उसके लिएतो एक तेरे लिए सजाई है।

 

------------ ZalZala

 

Kaser Shora is a Polyamorist.  There are various things that the society calls her and is a kind of unjust behavior because the same kind of banter is not meated out to a polygamist.  Polygamy, was termed as a social necessity in one time giving it an excuse to provide a proper system of protecting more women. 

 

Well today in the times of empowered women can't a women enjoy the same privileges by providing equal level of support and love to two weak men?  Why would we become the judge, jury and executioner in that case? Why would we become the law of love? 

And finally: 

The easiest job these days is to become an unwarranted judge and pass judgements left right and center to all of them. However, it is not so easy for a person who is actually on the receiving side. Society has been built by the concepts that have been a cumulative function of education and time. Therefore, to out rightly dismiss a particular concept calling it immoral and prurient is the worst thing that can happen. 

Anything that is ancient need not be outdated. That way even Sun and the Moon are ancient but then they are universal. 

So let us keep a broad outlook. 


Cheers 

ZalZala (Kalyan)