I have often wanted to write about Gender Inequality in my set of Poems. However, this is a very complex topic and it would be really unfair if this is tackled in a unilateral way. Gender Inequality has several aspects and several faces that we see in the real world. It can be with Females or males. Depends also on various circumstances.
Can be the case that you are a female and you are not being provided equal opportunities.
Can also be the fact that you are a male, but your sensitivity is perceived as your weakness.
I am sure, I will not be able to cover all the aspects of this topic as there are so many things to be told about Gender Inequality. But then let us have some of them.
All of these poems are written in Hindi / Urdu.
The first poem is about the Female Gender inequality. I wanted to start with a cliche topic, so that we get a bit of a warm up. Much has been said about the Female gender inequality so I will not say much about it. Female Gender inequality has been the talk of the town in general and is one of the favorite topic of feminists. I cannot classify myself as a feminist, rather I will not categorize myself at all but then this topic really intrigues me as well.
ज़नाना (Female):
तुम समझते हो वो दफ्तर के लायक नहीं
उसे तो बस चूल्हा चौका तुम फुकवाओ।
बस वो औरत है कमज़ोर ओ मज़लूम
येही बात झूठी तुम उसे समझाओ।
मगर ये बात तुम्हारी दकियानूसी है,
उसके ज़हन में ये तो उतरने से रही।
वो तो वोही करेगी जो दिल चाहे उसका
अब गोया, वो तो डरने से रही।
पर तुम्हारा क्या है, तुम बाज़ न आयोगे
कुछ बातों से फिर उसे तुम डरायोगे।
ज़नानी को बस फिक्र अपने अज़मत की
उसी के खतरे को अब हत्यार बनाओगे।
मगर वो दिन थे जो लद गए, अब वो दिन नहीं।
अब वो इन डरावनी बातों से कभी नहीं डरेगी।
उसके कदमों नें आसमाँ को मंज़िल बनाया है।
रोको चाहे जितना भी तुम, वो आगे बढ़ेगी।
------------ ZalZala
My next Poem is just the opposite of the earlier one. This is about Male gender inequality. Yes, even men do suffer this problem. Although it is not talked about or not written about. Well, just like a person who takes up the female cause is respected as a feminist, I am not sure the other way is also respected as much. Words like Chauvinist, MCP or Misogynist often haunt a person who takes up the male cause. However, there are places where men are also subjugated and categorized.
Eg. In the kitchen, or a man doing household chores.
The next poem talks on the same lines.
आदम (Male):
ये ग़लत तहलीली है जो तुम कर रही हो आज।
"वो मर्द है, जगह उसकी है घर से बाहर काम में
नहीं कर सकता वो कभी भी रसोई के काम काज।
उसकी आँखों में आँसू कमज़ोरी की कोई निशानी है
सब कुछ ठिक है यहाँ, या फिर और कोई कहानी है?
ये सारे सवाल, ये सारे कयास जो तुम लगाती हो
क्या इस तरह फिर किसी आदम को आँक पाती हो?
ग़र चाहती हो तुम कि वो कोई राय न बनाए तुम्हारे लिए
फिर कोई राय लिए उसके तुम क्यों बनाती हो?
हाड़ मांस का वो भी तो एक इंसान ही है
लेकिन तुम्हारी आँखें है जो उसे हर दम नापती है।
ये डर है तुम्हारा या फिर कोई ज़नानी आदत
जो एक आदम को हर पल कटघरे में डालती है।
ये क्यों हर आदम को एक तराज़ू में तौलती है,
और दिल ही दिल में बस एक ही बात बोलती है;
"ये भी उन दूसरों की तरह होगा जिनका तजुरबा है
ये भी शायद नज़रो को काला कर देखता होगा
और क्या पता शायद अपनी बीवी को मारता होगा,
और अपने बीवी की कामयाबी से जलता होगा। "
बस ये सारे शुबा तुम्हारे, ग़लत नहीं पर सही भी नहीं
जानो यहाँ हर इंसान, आदम या ज़नाना, मुकतलिफ है।
पर हर मर्द तुला जाता है एक ही तवाज़ुन में
अब येही तो आज बड़ी तकलीफ है।
------------ ZalZala
My Third Poem in this series is more about the society. Sex is something that is biological and defined by birth, however gender is something that is defined by culture. If this is the basis of defining a gender then the entire process is very artificial and made by the society. A social dictum often dictates the fact that how each and every gender will be treated. This very aspect of gender leads to a societal gender inequality.
ज़माना (Society)
हर एक शक्स ने कानून बनाया अलग थलग यहाँ पर।
एक उसूल है मर्दो सा मर्दाना, सहुलियत ख़ातिर,
तो एक औरतों सा ज़नाना, ज़ुल्म के ख़ातिर।
ये दोनो कानून एक दूजे का मुताज़द करते हैं।
ये कोई सालों सदियों पुरानी आदत है जो चल रही
बस एक जिन्स को रखना है उपर, ऐक नीचै
ये बस उनकी पूरज़ोरी से मदद करते हैं।
ये ज़माना अलग काठी से दोनो की करती तहलीली
ज़नानी को सताता है, और आदम को दरियादिली।
हर मक़सूस ताकत ये मर्दो के करता नज़र है।
रही बात बदकिस्मत औरतों की तो क्या कहे,
इनके लिए ज़माना बरसता बन कर कहर है।
ये जो फर्क मुआश्री है औरत ओ मर्द का, मिटाओ।
बदलते वक़्त के साथ बादलों, अब तबदीली लाओ।
------------ZalZala
I always believe that being a parent is one of the most wonderful things that can happen to you. I am the father of a daughter and this gives me immense pride. However, in a typical Indian society, still in the 21st century things have not progressed as much. A parent of a daughter, especially the father, takes certain extra burdens. He has to be concerned about the marriage of the daughter right from the time she is born. Marriage! Can you imagine? In other parts of the world, a father would think, "Why on earth I should torture myself with this responsibility? My work is to give her a good education and confidence so that she can be one in a million. Marriage is something that she has to decide on her own and also finance it."
Well, even I belong to the same school. I am not parenting a daughter just to get her married off. This is not my objective. My objective is to make her stable and confident. However, this is not the case in majority.
बेटी का बाप (Daughter's Father)
अकसर वो कुछ डरा डरा सा रहता है।
तो क्या हुआ ग़र एक मुस्कान रखता है?
वो बेटी का बाप है, देख कर समझ लेना
बड़ा नाप तोल के वो हर चाल चलता है।
उसकी बेटी हुनर की मालकिन होगी मगर
उसे फिर भी एक फिक्र क्यों सताती है?
हर शाम को जब ढल जाता है सूरज तो
सोचता है, "वो घर क्यों नहीं आती है? "
उसे ग़ुरूर है अपने लख्त-ए-जिगर पर
उतना ही सताता है उसको एक डर।
हर दिन रखता है कोई पत्थर सीने पर
बेटी को फूलो का दे बिछौना मगर।
फिर ऐसा भी एक दिन आ जाता है।
जब रिवाज़ों का नश्तर उसे हराता है।
मनाता है जहां खुशी उस मंज़र का
और वो रह जाता है तन्हा एक कोने में
भीगी आँखों से पकड़ता है बेटी का हाथ
और हसते हसते उसको विदा कर आता है।
वो रो भी नहीं सकता और कह भी नहीं सकता
वो बस चुप कर अपना, फर्ज़ निभाता है।
हर एक हिस्सा कर देता वो कुरबान जो
वो बेटी का बाप कहलाता है।
------------ ZalZala
How many of you have heard this phrase "Beta hai to vansh chalega"? I am sure many of you. Now just understand. Vansh, as in clan, is a social concept. The DNA is a mixture of both father and the mother. So technically speaking, a daughter or a girl is equally proficient to take the name of the clan as the son is.
Eg. In the British monarchy, there have been several instances when the heir is not a male but a female. In that case the throne has a queen. As recent as the present.
Even if we were to hypothetically believe in this concept of a son running the clan then we come to a very pertinent questions. How much difference would it make to the history of the world and me if my clan is run or not run. Tomorrow when I am not there in this world, I will not be there to witness this huge run of my clan, then why pressurize for a son?
Next poem takes on this Aspect.
बेटा वंश चलाता है (He runs the Clan)
कब तक हम ये भेड़चाल चलेंगे?
वंश आगे बढ़ाता है सिर्फ बेटा,
ये बात ज़हन में हम कब तक रखेंगे?
और चलो वंश आगे बढ़ भी गया तो क्या
कौनसा मौर्य सामराज्य के सुल्तान हो तुम?
है तो वोही दौलत, थोड़ा या फिर ज़्यादा,
कहाँ किसी तवारीख़ की शान हो तुम?
ग़र मान भी ले कि तुम तीस मार खाँ हो
फिर भी तुम्हें क्यों है बस बेटे की आज़
राज तो ज़नानी भी चलाती है दम खम से
निकलो तुम कल से, आँखें खोलो आज।
मिसालें ग़र दी तो दंग रह जाओगे।
बेटियाँ कैसे होती है हर काम में अव्वल
तुम यक़ीन नहीं कर पाओगे।
पर तुम्हें तो सिर्फ बेटे की ललक है,
फिर वो चाहे निकले कोई कपूत।
"वंश चलाता है बस लड़का, और कोई नहीं"
चाहे फिर करे काले वो सारे करतूत।
ये तुम्हारी जिन्सी आज़, एक दिन दोज़ख पहुँचाएगी।
उपरवाले को भी ललक ये, रास कभी न आएगी।
------------ ZalZala
"Mubarak ho beta hua hai" (Congratulations, it is a boy), this is something that has been also overhyped in the Indian society. We have all been exposed to our glorious history again and again. There are several folklores of several beliefs that provide a huge importance to the male child.
So much so, that in some cases getting a male child is like winning a lottery, no matter if the child grows up to be a ruffian or some goon in some place.
The next poem is about this. I would like your comments especially if you can decode the end over here.
मुबारक हो...... बेटा हुआ है (It is a Boy)
कितनी मिन्नतें की भगवान से फिर ये दिन आया है।
भगवान ने जैसे उस पर कोई मेहर बरसाया है।
परेशाँ था वो अब तक मगर, थोड़ी है राहत,
बोली जब वो नर्स " आपको बेटा हुआ है। "
रामचरण है नाम उसका, गाँव है मलकापुर
सुनकर ये खबर देखो, सबके है बदले सुर।
वो कस्बा जो तानें देता, कहता "पत्नी बांज है"
आज वोही लोग आ कर लेंगे दावत ज़रूर।
घरवाले भी आज खुशी से झूम रहे हैं इस कदर
लगता है जैसे बिन तिथि कोई तीज है आज।
आज तो सास भी बहू को मान रही है देवी कोई
खिसियानी ननद का भी आज बदला है मिज़ाज।
और पत्नी, जो माँ बनी है, चैन की साँस लेती
और चुपके से आँसू छिपाकर, रब से ये कहती
" या रब मुझे तू माफ कर, मैं ही कमज़ोर थी
दी कुरबानी लछमी की, मेरी दशा कुछ और थी,
रखना मेरी बेटी को तू, अपने निगाहें मयार में
मैं तो नहीं दे सकी पर, कमी न हो तेरे प्यार में। "
------------ZalZala
My last poem in this series is about profession. Professional gender inequality is really increasing across the world. Some work are defined for females and some for males. Well sounds really archaic but it is there. A professional setup may sound or give a feelers of being extremely fair, however, it really has a strong undertone of gender inequality in many cases.
पेशा (Profession)
"उसको रहने दो! वो ये कर नहीं पाएगी!
अरे लड़की है वो, अब कैसे भार उठाएगी।
वैसे भी क्या यहाँ पर मर्द कम पड़ गए ?
या फिर चुड़ियाँ पहन ली है सब लड़को ने
जो एक कमज़ोर सी लड़की पर ये ज़िम्मा है।
क्या ओफिस हमारा अब इतना निकम्मा है? "
ये बातें आजकल कुछ आम सी हो चली है
ज़माना बदला, वक़्त बदला, सोच कहाँ बदली है?
वोही हज़ारों साल पीछे, हम अब भी करते निवास
और दुनिया के आला यहाँ करते सभी बकवास।
उन बातों पर, चाहे तारीफ़ हो या तंकीद, ज़ाहिर है
लड़का ही कर सकता है काम सारे, वोही माहिर है।
मगर वक़्त और हालात अब कुछ और बताते हैं
ये अब ज़नानी कंधे भी ये तकल्लुफी उठाते है।
ये पकड़ हथियार जाती हैं मैदान-ए-जंग में भी।
और कहीं कहीं तो ये जहाज़ लड़ाकू भी उड़ाते है।
मर्दाना ऐनक से देखने वाली नज़रो में नज़ाकत कहाँ?
खुद के अना से परे देख पाए, ऐसी करते हिमाकत कहाँ?
पर वक़्त, वो तो कोई चश्मे की मोहताज नहीं।
जो चल रहा था ज़हनी ज़ुल्म सदियों से बदस्तूर;
जो आईन करता ज़नान को खुशी से बहुत दूर;
वो आईन अब है कल की बात, वो आज नहीं।
हर पेशे पर हो रही अब बराबर की हिस्सेदारी है।
कल की बात और थी कल तो अब बीत गया
आज कंधे से कंधा मिलाने की तैयारी है।
------------ ZalZala
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