When somebody asks you or rather tells you that what would you do if you actually get an opportunity to go back to your life by say 10 or 15 years, them most of you would actually like to do some amends in your life. However, time has it's own priniciples. Time cannot travel back, it is not possible to actually bring back old times, never in this world at least. There are some steps that can only be taken in the forward direction. Life is like that of a bridge which keeps on disintegrating as you move ahead in your pace, thus eliminating any chances or even probabilities for you to take a step backwards.
Just as time, the mind has its own limitations. It is the work of the mind to actually keep on registering things and actually analyzing "What if I could do this again? What if I got another chance?". Thus begins the duel between time and a nostalgic mind, in which unfortunately and principally time and only time gets to be the victor. However in this duel what is left is that of a rememberance which can be taken as a momento for a lifetime. The poem below is actually an example of such a feeling.
अरसा बहुत बीत गया पर
कहीं अभी भी मैं वहीँ रहता हूँ...
पता है मुझे के सुना नहीं तुमने कुछ भी
पर शायद पुरानी वोही बात कहता हूँ .....
वक़्त के सिलवटों पर आज भी मैं कहीं
ढूँढता हूँ तेरे हसीं निशाँ .....
के बेरहम वक़्त ने भी कहीं भुला दिया
तेरे मेरे प्यार का जहाँ ......
उम्र ढली और सोच कहीं तो
होते गए और गहरे से ....
काली जुल्फे ....लहराते हुए
हो गए कुछ सुनहरे से ....
दिल का हर कोना कहीं आज भी
तुझसे महरूम सा हैं ....
ख़ुशी तो हैं कहीं इस जहाँ में पर
रूह कुछ गुमसुम सा हैं .....
ज़िंदगी के कल पुर्जे अभी
सलामत जैसे दीखते तो हैं
ख्वाब अभी भी नए बुनता हैं
अरमान कहानी लिखते तो है
पर कहीं एक खलिश है मुझे
साँसों को तेरी जुस्तुजू हैं
पन्ने वक़्त के पलटे फिर से
दिल को येहीं आरज़ू हैं .....
लगभग सब कुछ सही है पर
कहीं कहीं खामिया हैं ....
बेमिसाल सी इस ज़िंदगी में कहीं
मिसालो की कमियाँ हैं ...
हस्ते-ज़ख्म हरे हुए आज
खुशियाँ जैसे रो पड़ी हैं
माजी से जैसे कुछ हसीं पल
कुछ देर के लिए खादी हैं
फिर भी क्यों मैं छू न पाया
आज भी कुछ मैं कह न पाया
माजी के मेरे हसीं पालो में जैसे
पड़ा हो हकीकत का साया ...
फिर सोचता हूँ मैं कुछ गौर से
जो भी हुआ ....अच्छा हुआ
बंध किताब अब बंध ही रहें तो बेहतर
तुम सलामत रहों ....येहीं है दुआ ......
कुछ कदम होते ही ऐसे हैं
जो कभी पीछे मुड़ते नहीं
ये तो होते है जाते साँसों की तरह
जाने के बाद जान से जुड़ते नहीं ....
एहसास बस रहता हैं के था वो भी एक वक़्त सुहाना
कुछ जज़्बात कभी मरते नहीं...चाहे दिल हो कितना पुराना .....
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